श्री परशुराम जयंती
अक्षय तृतीया
के उपलक्ष में विशेष लेख
" भगवान परशुराम की अवतार कथा "
आचार्य पंडित रोहित वशिष्ठ
सिद्ध पीठ शिव बगलामुखी मंदिर
ब्रह्मपुरी कॉलोनी , पेपर मिल रोड , सहारनपुर
भगवान विष्णु के स्वरूप , भगवान शिव और महर्षि कश्यप के शिष्य ,.देवराज इंद्र के वरदान से अवतरित , भृगुवंशी द्विजवर , महर्षि जमदग्नि-पुत्र महाबाहु महातेजस्वी ,महाबलवान , महापराक्रमी और चिरंजीवी जामदग्नेय अर्थात परशुराम जी का इस धरा भूमि पर अवतार " वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को प्रदोष काल " में हुआ था ।
जन्म के समय पुनर्वसु नक्षत्र , सूर्य आदि छ ग्रह अपनी उच्च राशि पर थे और राहु मिथुन राशि पर स्थित था ।
भगवान परशुराम भगवान विष्णु के आवेश संज्ञक षष्ठम अवतार थे ।
धर्म ग्रंथों में उनके अवतार की कथा इस प्रकार है
चन्द्रवंशी महाराज कुशाम्भ एक महाबलशाली एवं हरिचरणों में अनुरक्त पुत्र की कामना अपने ह्रदय में रखते थे ! इस उद्देश्य की पूर्ति करने के लिए महाराज कुशाम्भ वन गये और देवराज इन्द्र के प्रति भक्ति से परिपूर्ण हो घोर तपस्या की !
.
राजा केवल वृक्षों के पत्तों का सेवन करते और इसके कुछ समय पश्चात् मात्र वायुपान करके ही कठोर तप किया ! देवराज इन पर प्रसन्न हुए , दर्शन दिये और कहा- राजन् ! मैं स्वयं ही आपके पुत्र रूप में आऊँगा ! समय आने पर देवेन्द्र गाधि नाम से राजा कुशाम्भ के यहां पुत्र रूप में उत्पन्न हुए !
.
गाधि धर्मपरायण , महापराक्रमी और महान हरिभक्त हुए ! इन्होंने संतान के रूप में कन्या प्राप्त करने की इच्छा की ! माँ भगवती की आराधना की और माँ के वर से पुत्री को प्राप्त किया ! कन्या का नाम सत्यवती रखा गया ! सत्यवती माता-पिता को सुख प्रदान करते हुए धीरे-धीरे बढती रही , पिता पुत्री को देख प्रसन्नता से खिल उठते !
.
जब कन्या विवाह योग्य हुई , पिता को पुत्री के विवाह की चिन्ता हुई , योग्य वर की तलाश होने लगी ! तपस्विनी और तेजस्वी कन्या के लिए भृगुपुत्र महर्षि ऋचीक को योग्य वर जान पिता ने कन्यादान किया !
.
पति संग राजकुमारी सत्यवती वन में आ गयी ! पति को सेवा से संतुष्ट किया , पति की पूजा-आराधना की सामग्री समय पर प्रस्तुत की , पति अपनी प्रियतमा से बेहद प्रसन्न रहते ! काफी वर्ष बीत जाने के बाद भी संतानसुख न होने के कारण सत्यवती चिन्तातुर हो दुःख से भर उठी !
.
पत्नी को व्याकुल देख महर्षि ने सान्त्वना दी और कहा - मैं अपने तप के प्रभाव से , हरिचरणों की भक्ति से तपोनिष्ठ संतान उत्पन्न करने में सक्षम हूँ , प्रिये चिन्ता मत करो ! हमें शीघ्र ही योग्य व हरिभक्त पुत्र की प्राप्ति होगी !
______________________________________
महर्षि ऋचीक ने संतान की कामना से अपनी पत्नी सत्यवती के लिए चरु ( यज्ञीय खीर ) तैयार की ! महर्षि की भार्या ने कहा - प्रभु ! मेरी माता के लिए भी चरु तैयार करें जिससे वे पुत्रवती हों ! महर्षि ने भार्या की बात मान सत्यवती की माता के लिए अलग से चरु प्रदान की !
.
उपयोग के समय गाधि-पत्नी ने पुत्री को कहा - बेटी ! सभी अपने लिए गुणवान पुत्र की चाह रखते हैं , पत्नी के भाई के लिए विशेष रुचि नहीं होती , तुम मुझसे चरु बदल लो ! माता के कहने पर सत्यवती ने चरु बदल लिया !
.
तप से लौटने पर महर्षि ऋचीक ने पत्नी में विपरित लक्षणों को देख क्रोध में कहा - " यह तुमने क्या किया ? चरु बदल लिया ! तुम्हें दिये गये चरु में शान्ति , ज्ञान , तितिक्षा आदिक सम्पूर्ण ब्राह्मणोचित गुणों का समावेश था , अब ये गुण तुम्हारे भाई को मिल जाएंगें और दूसरे चरु में सम्पूर्ण ऐश्वर्य , महान पराक्रम , शूरता और महाबल की सम्पत्ति के गुणों का समावेश था जो अब तुम्हारे पुत्र को प्राप्त होंगे !
.
विपरित प्रयोग होने से तुम्हारा ब्राह्मण-पुत्र भयंकर अस्त्र-शस्त्र धारण करने वाला , क्रोध के आवेश में आने वाला , क्षत्रियों के गुणों को धारण करने वाला उत्पन्न होगा और तुम्हारा भाई शान्तिप्रिय व ब्राह्मणों के गुणों को धारण करने वाला होगा !"
.
सत्यवती यह सुनकर काँप उठी और हाथ जोड कहा - भगवन् ! आप प्रसन्न हों , यह मुझसे भूलवश हुआ है , आप कुछ ऐसा कीजिए कि पुत्र ब्राह्मणोचित गुणों से सम्पन्न हो चाहे पौत्र आपके कहे अनुसार हो जाए ! महर्षि ने कहा - कल्याणी ! यह बात मैं मान लेता हूँ ! ऐसा ही होगा , तुम्हारा पौत्र महान तपस्वी और भगवान विष्णु का अंश होगा !
.
सत्यवती से महर्षि जमदग्नि का जन्म हुआ और उनके भाई के रूप में विश्वामित्र ने जन्म लिया ! महर्षि जमदग्नि धर्मपरायण व इन्द्रभक्त हुए , इन्होंने सूर्यवंशी महाराज रेणु की कन्या रेणुका से विवाह किया और इनके यहां स्वयं भगवान नारायण पुत्र रूप में अवतरित हुए , महर्षि ने पुत्र का नाम "राम" रखा !
______________________________________
भगवान परशुराम का समूचा जीवन अनुपम प्रेरणाओं व उपलब्धियों से परिपूर्ण है ।
भृगुकुल शिरोमणि परशुराम जी ऋषियों के ओज और क्षत्रियों के तेज दोनों का अद्भुत संगम माने जाते हैं।
इनके माता-पिता ऋषि जमदग्नि व रेणुका भी विलक्षण गुणों से सम्पन्न थे। जहां जमदग्नि जी को अग्नि पर नियंत्रण पाने का वरदान प्राप्त था, वहीं माता रेणुका को जल पर नियंत्रण पाने का ।
महादेव शिव के प्रति विशेष श्रद्धा भाव के चलते एक बार बालक राम भगवान शंकर की आराधना करने कैलाश जा पहुंचे ।
वहां देवाधिदेव ने उनकी भक्ति और शक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें अनेक अस्त्र-शस्त्रों सहित
दिव्य " परशु " प्रदान किया।
इसी अमोघ परशु को धारण करने के कारण बालक राम से " परशुराम " बन गये ।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने सीता स्वयंवर के प्रसंग में भगवान परशुराम के गुणों की प्रशंसा करते हुये कहा था
" राम मात्र लघुनाम हमारा ।
परसु सहित बड़ नाम तोहारा ।। "
______________________________________
श्रीमद्भागवत के अनुसार एक बार परशुराम जी की अनुपस्थिति में माता रेणुका जल लाने गंगा तट गयीं । उस वक्त वहां गन्धर्वराज चित्ररथ अप्सराओं के साथ विहार कर रहे थे।
रेणुका उनकी जलक्रीड़ा देखने में ऐसी निमग्न हो गयीं कि उन्हें समय का बोध ही न रहा । जमदग्नि ऋषि को जब अपनी पत्नी के उस मर्यादा विरोधी आचरण का पता चला तो उन्होंने क्रोधित होकर अपने पुत्रों को मां का शीश काटने की आज्ञा दी ।
परशुराम जी के चार अन्य भाइयों ने माता माता के प्रति अपराध से भयभीत होकर और माता के स्नेह का स्मरण करते हुए , पिता की इस आज्ञा का उल्लंघन कर दिया ।
आज्ञा उल्लंघन से कुपित ऋषि जमदग्नि ने अपने इन चारों पुत्रों को पशु बनने का श्राप दे दिया ।
पिता के श्रापवश परशुराम जी के चारों भाई पशु बन आश्रम में स्थित हो गए ।
परशुराम जी ने आश्रम में आकर अपने भाईयों को न पाकर और रोती हुई अपनी माता को देखकर अपनी दिव्य दृष्टि से सारी घटना को जान लिया ।
परशुराम शान्त भाव से पिता के चरणों में प्रणाम कर पिता के सम्मुख हाथ जोडकर निश्चल भाव से खडे हो गये ।
पिता जमदग्नि ने अपने पुत्र की ओर देखते हुए कहा
पुत्र परशुराम शीध्र ही अपनी माता के शीश को काट दो ।
मातृ-पितृ भक्त परशुराम अपने पिता की अद्भुत पराक्रम और सामर्थ्य को जानते थे ।
पिता के चरणो में नतमस्तक परशुराम ने बिना विलंब किए और परिणाम का चिंतन किए बगैर भगवान शिव के दिए अमोघ परशे से अपनी माता के शीश को काट दिया ।
अपने पुत्र की पितृ भक्ति से ऋषि जमदग्नि बडे प्रसन्न हुए और उन्होंने परशुराम से वरदान मांगने के लिए कहा ।
भगवान परशुराम ने हाथ जोड़कर अपने पिता से कहा कि यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मेरी माता को पुनः जीवित कर दें ।
मेरे चारों भाई भी पूर्ववत् मनुष्य शरीर को प्राप्त कर आपकी सेवा करें ।
जिस प्रकार सोता हुआ बालक जागकर शयन अवस्था की घटनाओं से अनभिज्ञ रहता है , उसी प्रकार मेरी माता एवं मेरे भाईयों को आज की घटना का स्मरण न रहे , उनका स्नेह मुझ पर पूर्ववत् बना रहे ।
ऋषि जमदग्नि ने प्रसन्न होकर परशुराम को यह सभी प्रदान प्रदान कर दिए ।
वरदान के प्रभाव से माता रेणुका जीवित हो उठी और चारों भाई भी मनुष्य शरीर में आ गए ।
चारों भाइयों और माता ने परशुराम जी को हृदय से लगा लिया ।
______________________________________
परशुराम जी का समूचा जीवन अनुपम प्रेरणाओं व उपलब्धियों से परिपूर्ण है।
वे न सिर्फ ब्रह्मास्त्र समेत विभिन्न दिव्यास्त्रों के संचालन में पारंगत थे अपितु योग, वेद और नीति तथा तंत्र कर्म में भी निष्णात थे।
शिव पंचचत्वारिंशनाम स्तोत्र की रचना परशुराम जी ने ही की थी ।
वे पशु-पक्षियों तक की भाषा समझते थे और उनसे बात कर सकते थे,
हिंसक वन्यजीव उनके स्पर्श मात्र से ही उनके मित्र बन जाते थे।
इन्हें श्रेष्ठ राजनीति के मूल्यों का प्रतिष्ठाता माना गया है वे शासन में मानवीय गरिमा की सर्वोच्चता के पक्षधर थे। अन्याय के विरुद्ध आवेशपूर्ण आक्रामकता के विशिष्ट गुण के कारण उन्हें भगवान विष्णु के 'आवेशावतार' की संज्ञा दी गयी है। न्याय के प्रति उनका समर्पण इतना था कि उन्होंने हमेशा अन्यायी को खुद ही दंडित किया।
ब्रह्माण्ड में शस्त्रविद्या के महान गुरु के नाम से विख्यात भगवान परशुराम ने महाभारत युग में भी अपने ज्ञान से कई महारथियों को शस्त्र विद्या प्रदान की थी।
जिस प्रकार देवनदी गंगा को धरती पर लाने का श्रेय राजा भगीरथ को जाता है ठीक उसी प्रकार पहले ब्रह्मकुंड (परशुराम कुंड) से और फिर लौहकुंड (प्रभु कुठार) पर हिमालय को काटकर ब्रह्मपुत्र जैसे उग्र महानद को धरती पर लाने का श्रेय परशुराम जी को ही जाता है। यह भी कहा जाता है कि गंगा की सहयोगी नदी रामगंगा को वे अपने पिता जमदग्नि की आज्ञा से धरा पर लाये थे। तमाम पौराणिक उद्धरणों के अनुसार केरल, कन्याकुमारी व रामेश्वरम की संस्थापना भगवान परशुराम ने ही की थी। उन्होंने जिस स्थान पर तपस्या की थी, वह स्थान आज तिरुअनंतपुरम के नाम से प्रसिद्ध है।
केरल में आज भी पुरोहित वर्ग संकल्प में परशुराम क्षेत्र का उच्चारण कर उक्त समूचे क्षेत्र को परशुराम की धरती की मान्यता देता है। विदेहराज जनक की राजसभा में सीता स्वयंवर के दौरान श्रीराम द्वारा शिवधनुष तोड़ने पर परशुरामजी का क्रोध व राम के अनुज लक्ष्मण से उनका संवाद सनातनधर्मियों में सर्वविदित है; मगर उनकी महानता इस बात में है कि ज्यों ही उन्हें अवतारी श्रीराम के शौर्य, पराक्रम व धर्मनिष्ठा का बोध हुआ और उनको योग्य क्षत्रिय कुलभूषण प्राप्त हो गया तो उन्होंने स्वत: दिव्य परशु सहित अपने समस्त अस्त्र-शस्त्र राम को सौंप दिये और महेन्द्र पर्वत पर तप करने के लिए चले गये। कांवड़ यात्रा का शुभारंभ परशुराम जी ने किया था। अंत्योदय की बुनियाद भी परशुराम जी ने ही डाली थी। समाज सुधार और समाज के शोषित-पीडि़त वर्ग को कृषिकर्म से जोड़कर उन्हें स्वावलंबन का पाठ पढ़ाने में भी परशुराम जी की महती भूमिका रही है।
पाप संहारक परशुराम
सर्वविदित है कि परशुराम जी का क्षत्रियों के विरुद्ध अस्त्र उठाना उनकी उस अन्याय के विरुद्ध प्रबल प्रतिक्रिया थी जो महिष्मती राज्य के उस काल के हैहयवंशीय क्षत्रिय शासक आम प्रजा पर कर रहे थे, निर्दोष पिता की हत्या ने उनकी क्रोधाग्नि में घी का काम किया।
कहते हैं, उन दिनों महिष्मती राज्य का हैहय क्षत्रिय कार्तवीर्य सहस्रार्जुन राजमद में मदान्ध था। समूची प्रजा उसके क्रूर अत्याचारों से त्राहि-त्राहि कर कर ही थी। भृगुवंशीय ब्राह्मणों (परशुरामजी के वंशजों) ने जब उसे रोकने का प्रयत्न किया तो अहंकार में भरे सहस्रार्जुन ने उनके आश्रम पर धावा बोलकर उसे तहस-नहस कर दिया। इस पर भी क्रोध शांत न हुआ तो उसने परशुराम जी के पिता ऋषि जमदग्नि पर हमला बोलकर उन्हें 21 स्थानों से काटकर मार डाला। तब परशुराम जी ने अपने परशु से कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन को उसके समूचे कुल समेत मृत्युलोक पहुंचा दिया ।
यह बात सभी को.ज्ञात होनी चाहिये कि भगवान परशुराम ने केवल उन्हीं क्षत्रियों का वध किया था , जो पाप , भोग-विलास और अनाचार में लिप्त थे । ब्राह्मण , गौ , नारी पर अत्याचार करते थे।
धर्म का मार्ग त्याग कर अधर्म का पालन करते थे ।
धर्म पालक क्षत्रियों को उनसे कदापि भय न था ।
यह सर्व विदित है कि महाराज जनक , दशरथ जैसे धार्मिक राजाओ पर उनका वरद हस्त था ।
अनैक सूर्यवंशी , चंद्रवंशी राजा उनके आशीर्वाद से ही धराभूमि पर निर्भर विचरण करते थे।
भगवान परशुराम ने अश्वमेध नामक महायज्ञ का विधिवत् अनुष्ठान किया था और उसमें श्रेष्ठ ब्राह्मणों को सातों द्वीपों सहित पृथ्वी दान कर दी थी तथा स्वयं महेन्द्र पर्वत का आश्रय ले कठोर साधना की !
.
पितृभक्त भगवान परशुराम ने तत्कालीन आतताई दुष्ट राजाओं का वध कर भूभार हरण किया और धर्म की स्थापना की ! राजा युधिष्ठिर ने अपने राज्याभिषेक के समय रेणुकानंदन परशुराम जी ने अभिषेक किया !
राजसूय यज्ञ में उनकी उपस्थिति महाभारत में वर्णित है ।
पितामह भीष्म इनके शिष्य रहे हैं , परशुराम जी ने इन्हें कहा था - पुत्र ! कुरुनंदन भीष्म ! इस जगत में भूतल पर विचरने वाला कोई भी क्षत्रिय तुम्हारे समान नहीं है !
.
श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न ने दिग्विजय के प्रसंग में सेना सहित महेन्द्राचल पर जाकर भगवान परशुराम के श्रीचरणों में दण्डवत प्रणाम किया और कहा - हे प्रभो ! मैं श्रीकृष्णपुत्र प्रद्युम्न आपके श्रीचरणों में मस्तक झुका प्रणाम करता हूँ , मेरा प्रणाम स्वीकार करें ! भगवान परशुराम ने यादवश्रेष्ठ महावीर प्रद्युम्न का स्वागत किया , विजय का आर्शीवाद दिया और सम्पूर्ण सेना के लिए अपनी योगशक्ति से छप्पन भोगों को प्रकट कर सबकी तृप्ति की , सबने स्वादिष्ट भोज्य पदार्थो का आनन्द लिया !
.
जो चारों वर्णो में भगवान परशुराम का अनन्य भक्त है , उस भाग्यशाली पुण्यात्मा को इनकी कृपा प्राप्त होती है , वह सूर्य के समान तेजस्वी व पराक्रम से युक्त बनता है और सौम्य स्वरूप प्रभु परशुराम की करुणा का पात्र बनता है !
.
भगवान परशुराम की जय हो !
©®
आचार्य पंडित रोहित वशिष्ठ
सिद्ध पीठ शिव बगलामुखी मंदिर
ब्रह्मपुरी कॉलोनी , पेपर मिल रोड , सहारनपुर 9690066000